भूमिका

"विश्वं पुष्टं ग्रामे , आस्मिन अनातुरम "

 

भारतीय ऋषियों की कल्पना गावों  के विकास एवं स्वावलंबन के बारे में क्या थी ? यह इस ऋचा ( मंत्र ) में स्पस्ट किया गया है . गाँव अपने में विश्व को पुष्ट करने वाली इसी इकाई है जिसमें किसी भी प्रकार की परेशानी व आतुरता ( जल्दबाजी ) न हो अर्थात भविष्य के प्रति पूर्ण निश्चिंतता व अस्वस्तता हो . वास्तव में हमारे गाँव इस सूत्र के अनुरूप पूर्णतया स्वावलंबी थे उन्हें अपनी आवश्यकता के लिए बाहर की और नहीं देखना होता था. विकास की अपनी पूर्णत: विकेंद्रीकृत सामजिक व्यवस्था थी.  अंग्रेजो ने हमारी विकेंद्रीकृत ग्रामीण व्ययस्था को धीरे धीरे केंद्रीकृत व्यवस्था में बदला जिसे स्वतंत्र भारत की अपनी सरकारों ने पूर्ण पोषण प्रदान किया. आजादी के बाद सरकारी तंत्र विकास हेतु मुख्य धुरी बना , सामाजिक तंत्र कमजोर होता गया. जो कुछ  प्रयास छुट पुट स्तर पर गैर सरकारी स्वैछिक संगठनो द्वारा हुवे वे भी धीरे धीरे सामाजिक अनुदान आश्रित होकर अपना यथार्थ सामाजिक स्वरुप खोते गए. इस तरह विकास प्रक्रिया ने सामाजिक तंत्र की भूमिका व योगदान नगण्य रह गया .                                                        
                                                      सम्पूर्ण विकास प्रक्रिया के केंद्रीकृत होकर राज्य आश्रित हो जाने  के कई भयंकर दुस्परिणाम हुवे है. एक तो जन समुदाय की उदासीनता दूसरा रास्ट्र पर विदेशी कर्ज और बहुरास्ट्रीय कंपनियों का बदाव . बहुरास्ट्रीय कंपनियों के लिए भारत विश्व का बहुत बड़ा बाजार है जिसका 80 % भाग हमारे गाँव है . उनकी निगाह केवल शहरी बाजार पर ही नहीं है बल्कि भारतीय गांवों पर भी है. यदि हम अपनी आर्थिक स्वतन्त्रता को तथा अपनी रास्ट्र की स्वतंत्रता की सुरक्षित रखना चाहते है तो उनसे  मुकाबला करने की कारगर तरिका यही  है की हम अपने  80% गाँवों को उनका बाजार बनाने से बचाये यह  तभी सम्भव है जब हम अपने गाँवों को रोजमर्रा की सामान्य आवश्यकता के लिए स्वावलंबी बनाए . अत: आज का हमारा वास्तविक स्वतन्त्रता संग्राम है हमारे गाँवों स्वावलंबी बने इसके लिए हमें प्राणपन से जुट जाना चाहिए  और इस कार्य को राष्ट्र का मौलिक व राष्ट्र गौरव का प्रश्न बनाना चाहिए. हमारे गाँव आत्मनिर्भर बने इसलिए यह स्वावलंबी ग्राम कार्यक्रम संस्था ने तैयार किया है




 "वन्दे मातरम"